09 Jan भारत में कानूनों का पुनरावलोकन : सर्वोच्च न्यायालय का दृष्टिकोण
( यह लेख यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा के मुख्य परीक्षा के सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 2 के अंतर्गत ‘ भारतीय राजनीति और शासन व्यवस्था , कानूनों की समय-समय पर समीक्षा की आवश्यकता , भारत में कानूनों को अधिक प्रभावी बनाने के उपाय , कानून निर्माण में मुख्य चुनौतियाँ ’ खण्ड से और प्रारंभिक परीक्षा के अंतर्गत ‘ भारत का सर्वोच्च न्यायालय , साइबर अपराध , आईटी अधिनियम, 2000 , राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) ’ खण्ड से संबंधित है।)
खबरों में क्यों ?
- हाल ही में, सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 81 के तहत 45 दिन की सीमा से संबंधित एक याचिका पर सुनवाई की।
- इस सुनवाई के दौरान, सर्वोच्च न्यायालय ने कानूनों की प्रभावशीलता का आकलन करने के लिए समय-समय पर विधायी समीक्षा की आवश्यकता पर जोर दिया।
- सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर भी ध्यान केंद्रित किया कि कानूनों की समीक्षा करने और उनकी कमजोरियों या समस्याओं की पहचान करने के लिए एक विशेषज्ञ तंत्र की जरूरत है।
- इसके साथ ही, सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 81 के संदर्भ में समीक्षा की प्रक्रिया को हर 20, 25 या 50 वर्ष में एक बार करने का प्रस्ताव भी रखा है।
लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम (RPA), 1951 :
लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 का उद्देश्य राष्ट्रीय और राज्य स्तरों पर चुनावी व्यवस्था को नियंत्रित करना है।
इस अधिनियम के मुख्य प्रावधान निम्नलिखित हैं:
- इसमें लोकसभा, राज्य विधानसभाओं और राज्य विधान परिषदों के लिए सीटों के आवंटन का तरीका निर्धारित किया गया है।
- यह अधिनियम निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन का प्रावधान करता है।
- यह मतदाताओं की योग्यता और अयोग्यता को निर्धारित करता है और मतदाता सूची तैयार करने के लिए दिशा-निर्देश प्रदान करता है।
- धारा 81 के तहत, चुनाव परिणाम की घोषणा के 45 दिनों के भीतर परिणाम को चुनौती देने वाली याचिका दायर की जानी चाहिए।
- याचिका भ्रष्टाचार, अवैध प्रथाओं या चुनावी प्रक्रिया के उल्लंघन के आधार पर दायर की जा सकती है, और इसे उच्च न्यायालय में दायर किया जाना चाहिए।
विधायिका द्वारा कानूनों की आवधिक समीक्षा की आवश्यकता :
- मौजूदा कानूनों की कमियों की पहचान कर नियमित समीक्षा को सुनिश्चित करना : समय के साथ, बदलते हालात के कारण कानून अप्रासंगिक हो सकते हैं। नियमित समीक्षा यह सुनिश्चित करती है कि कानून अपनी उद्देश्य पूर्ति में सक्षम हैं और यदि आवश्यक हो तो संशोधन या निरसन किया जा सके। उदाहरण के रूप में, IT अधिनियम, 2000 में साइबर अपराधों के लिए संशोधन किया गया।
- कानून की समाज की आवश्यकताओं के अनुसार और प्रभावी बने रहने के प्रासंगिक होने की आवश्यकता : समय-समय पर समीक्षा यह सुनिश्चित करती है कि कानून समाज की आवश्यकताओं के अनुसार और प्रभावी बने रहें। यह राजनीतिक उद्देश्यों से प्रेरित और जल्दबाजी में बने कानूनों को भी नजरअंदाज करने में मदद करती है। उदाहरण: बिहार में शराब विरोधी कानून के लागू होने से न्यायालय पर दबाव बढ़ा, और राजस्थान में गौहत्या रोकने के लिए संस्थाओं पर छापे मारने के कानून से दुरुपयोग की संभावना पर चिंता बढ़ी।
- अनपेक्षित परिणामों को संबोधित करना : आवधिक समीक्षा यह पहचानने में मदद कर सकती है कि कौन से कानून बिना जानबूझकर न्यायिक प्रक्रिया में समस्याएं पैदा कर रहे हैं। उदाहरण: लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 81, 45 दिनों की सीमा के कारण वैध चुनावी विवादों में कमी हो सकती है।
- जवाबदेहिता में सुधार करने की आवश्यकता : नियमित समीक्षा यह सुनिश्चित करती है कि कानून अपने मूल उद्देश्य और लोकतांत्रिक सिद्धांतों के अनुरूप रहें। उदाहरण के तौर पर, भारतीय दंड संहिता की धारा 498A में दुरुपयोग के आरोप लगे, जिसके कारण इसे फिर से जांचने की आवश्यकता महसूस हुई।
- कानूनों को वैश्विक मानकों और मानवाधिकार के अनुरूप होना : कई लोकतांत्रिक देशों में यह सुनिश्चित करने के लिए नियमित समीक्षा की जाती है कि कानून वैश्विक मानकों और मानवाधिकार के अनुरूप हों। उदाहरण: अमेरिकी पैट्रियट अधिनियम में गोपनीयता और नागरिक स्वतंत्रता को लेकर समय-समय पर संशोधन किया गया है।
अन्य लोकतांत्रिक देशों में कानूनों का आवधिक संशोधन का मौजूदा प्रावधान :
- यूनाइटेड किंगडम : इंग्लैंड और वेल्स का विधि आयोग मौजूदा कानूनों की नियमित समीक्षा करता है। इसके सुझावों के आधार पर कई महत्वपूर्ण कानूनी सुधार हुए हैं, जैसे 1735 का जादू-टोना अधिनियम का निरस्त होना, जो पुराने कानूनों के आधुनिकीकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था।
- ऑस्ट्रेलिया : ऑस्ट्रेलियाई विधि सुधार आयोग भी समय-समय पर कानूनी ढांचे की समीक्षा करता है। आयोग विधायी बदलावों के लिए विस्तृत रिपोर्ट और सिफारिशें पेश करता है, ताकि समकालीन मुद्दों को हल करने में कानून प्रभावी और प्रासंगिक बना रहे।
भारत में कानूनों की आवधिक समीक्षा की राह में आने वाली मुख्य चुनौतियाँ :
- राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी का होना : कभी-कभी विधायी समीक्षा राजनीतिक एजेंडे से प्रभावित होती है, जिसके परिणामस्वरूप पक्षपाती संशोधन होते हैं जो सार्वजनिक हित की बजाय राजनीतिक या निर्वाचन संबंधी लाभ की ओर झुके होते हैं। उदाहरण स्वरूप, 2020 के कृषि कानूनों की आलोचना इस बात को लेकर की गई कि इन कानूनों ने कृषि बाजार सुधारने की बजाय कॉर्पोरेट हितों को बढ़ावा दिया और किसानों की समस्याओं को नजरअंदाज किया।
- कानूनों की समीक्षा करते समय अपनी सीमाओं का उल्लंघन करना और न्यायिक अतिक्रमण : कभी-कभी न्यायपालिका पर यह आरोप लगता है कि वह कानूनों की समीक्षा करते समय अपनी सीमाओं का उल्लंघन करती है, जिससे समीक्षा प्रक्रिया पर प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के तौर पर, 2015 में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने NJAC अधिनियम को रद्द कर दिया, जिसका उद्देश्य न्यायिक नियुक्तियों में कार्यपालिका की भागीदारी को बढ़ाना था।
- कानूनी जटिलता का होना : कई बार कानून एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं, और उनमें बदलाव करने से अप्रत्याशित परिणाम हो सकते हैं, या वे मौजूदा कानूनों से टकरा सकते हैं। उदाहरण के रूप में, POCSO अधिनियम और भारतीय दंड संहिता (IPC) में चाइल्ड पोर्नोग्राफी से संबंधित प्रावधानों के बीच विसंगतियाँ देखने को मिलती हैं।
- सार्वजनिक भागीदारी का सीमित होना : जब विधायी प्रक्रियाओं और कानूनी पहलुओं को लेकर जनता की समझ कम होती है, तो समीक्षा प्रक्रिया का प्रभाव सीमित हो जाता है। उदाहरण के लिए, रणबीर सिंह समिति द्वारा आपराधिक कानूनों में सुधार के लिए की गई कानूनी सुधारों पर जनता की भागीदारी सीमित थी, जिससे सुधारों की व्यापकता और समावेशिता पर सवाल उठे हैं।
भारत में विधिक सुधार से संबंधित संस्थाएँ :
- प्रशासनिक सुधार आयोग (ARC)
- राष्ट्रीय संविधान कार्यकरण समीक्षा आयोग (NCRWC)
- डॉ. रणबीर सिंह के नेतृत्व में आपराधिक कानूनों में सुधार हेतु समिति (2020)
- भारत का विधि आयोग
भारत का विधि आयोग :
- भारत में विधि आयोग एक गैर-सांविधिक सलाहकार निकाय है, जो विधिक सुधारों पर शोध करता है और सरकार को सिफारिशें देता है।
- इसे 1834 में चार्टर अधिनियम के तहत गठित किया गया था।
- स्वतंत्र भारत का पहला विधि आयोग 1955 में गठित हुआ था।
- वर्तमान में, 23वां विधि आयोग सितंबर 2024 से 2027 तक कार्य करेगा। इसका उद्देश्य अप्रचलित विधियों की समीक्षा और नए कानूनों का प्रस्ताव करना है।
आगे की राह :
- भारत में विधि आयोग को सशक्त बनाना : भारत में आवधिक विधायी समीक्षा के लिए समर्पित संस्थाओं की कमी है, इसलिए भारतीय विधि आयोग जैसी संस्थाओं को अधिक स्वतंत्रता और संसाधन प्रदान करके विधिक सुधारों की गुणवत्ता को बेहतर किया जा सकता है।
- नागरिकों की भागीदारी सुनिश्चित करना और उन्नत प्रौद्योगिकियों का उपयोग करना : उन्नत प्रौद्योगिकी समीक्षा प्रक्रिया को अधिक प्रभावी बना सकती है। सार्वजनिक परामर्श के लिए MyGov जैसे प्लेटफार्म और कानूनों की प्रभावशीलता मापने के लिए AI जैसे उपकरण नागरिकों की भागीदारी और विधि निर्माण में सुधार कर सकते हैं।
- कानून प्रवर्तन अधिकारियों के प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण के लिए संसाधन आवंटन करने की जरूरत : सरकार को विधिक सुधारों के लिए न्यायाधीशों, सिविल सेवकों और कानून प्रवर्तन अधिकारियों के प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण के लिए बजट आवंटित करना चाहिए।
- भारत को अपने कानूनों की समीक्षा में अंतर्राष्ट्रीय सर्वोत्तम प्रथाओं को अपनाने की अत्यंत जरूरत : भारत को अपने कानूनों को अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप बनाना चाहिए, जैसे कि राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) के मामले में देखा गया, ताकि पर्यावरण और प्रौद्योगिकी प्रशासन में प्रभावशीलता बढ़ सके।
- विधायी समीक्षा करके एक गतिशील विधिक ढाँचा बनाने की जरूरत : भारत को समय-समय पर विधायी समीक्षा करके एक गतिशील विधिक ढाँचा बनाना चाहिए, जो सामाजिक आवश्यकताओं और वैश्विक मानकों को पूरा करता हो।
स्त्रोत – पीआईबी एवं इंडियन एक्सप्रेस।
Download Plutus IAS Current Affairs (Hindi) 09th Jan 2025
प्रारंभिक परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न :
Q.1. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 81 के संदर्भ में 45 दिन की सीमा के बारे में की गई टिप्पणी के संदर्भ में विचार कीजिए :
- सर्वोच्च न्यायालय ने कानूनों की प्रभावशीलता का आकलन करने के लिए विधायी समीक्षा की आवश्यकता पर जोर दिया।
- सर्वोच्च न्यायालय ने प्रस्तावित किया कि लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 81 की समीक्षा हर 20, 25 या 50 वर्ष में एक बार की जानी चाहिए।
- सर्वोच्च न्यायालय ने यह सुझाव दिया कि चुनावी विवादों की संख्या में वृद्धि करने के लिए धारा 81 की 45 दिन की सीमा को समाप्त कर दिया जाए।
- सर्वोच्च न्यायालय ने समय-समय पर कानूनों की समीक्षा के लिए एक विशेषज्ञ तंत्र स्थापित करने की आवश्यकता पर बल दिया है।
उपर्युक्त कथनों में से कितने कथन सही है ?
A. केवल एक
B. केवल दो
C. केवल तीन
D. उपरोक्त सभी।
उत्तर – C
मुख्य परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न :
Q.1. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 81 की 45 दिनों की सीमा पर सुनवाई के संदर्भ में, विधायिका द्वारा कानूनों की आवधिक समीक्षा की आवश्यकता और महत्व, भारत में विधिक सुधार की मुख्य चुनौतियाँ और उनके समाधान और विधिक समीक्षा प्रक्रिया को अधिक प्रभावी बनाने के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग कैसे किया जा सकता है? तर्कसंगत व्याख्या कीजिए। ( शब्द सीमा- 250 अंक – 15 )
Qualified Preliminary and Main Examination ( Written ) and Shortlisted for Personality Test (INTERVIEW) three times Of UPSC CIVIL SERVICES EXAMINATION in the year of 2017, 2018 and 2020. Shortlisted for Personality Test (INTERVIEW) of 64th and 67th BPSC CIVIL SERVICES.
M. A M. Phil and Ph. D From (SLL & CS) JAWAHARLAL NEHRU UNIVERSITY, NEW DELHI.
No Comments