16 Jan वन (संरक्षण संशोधन अधिनियम) 2023 : जनजातीय मंत्रालय की पहल और प्रभाव
सामान्य अध्ययन- 2 अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से संबंधित मुद्दे , सरकारी नीतियाँ और हस्तक्षेप , वन अधिकार अधिनियम, चुनौतियाँ और उपाय
वन अधिकार अधिनियम (FRA), 2006, बाघ अभयारण्य, वनवासी, राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (NTCA), लघु वनोपज (MFP), वनमित्र
खबरों में क्यों ?
- हाल ही में, भारत के जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने राज्यों को बाघ अभयारण्यों में वन अधिकार अधिनियम (FRA), 2006 के अनुपालन को सुनिश्चित करने के लिए एक प्रभावी तंत्र स्थापित करने का निर्देश दिया है।
जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा हाल ही में जारी निर्देश से संबंधित प्रमुख प्रावधान :
- वन अधिकार अधिनियम का पालन सुनिश्चित करना : मंत्रालय ने यह स्पष्ट किया कि वन में रहने वाले समुदायों को उनके अधिकारों की कानूनी मान्यता के बिना वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के तहत बेदखल नहीं किया जा सकता। यह कदम मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल में वनवासी समुदायों से अवैध बेदखली की शिकायतों के बाद उठाया गया है।
- पुनर्वास के लिए सहमति प्राप्त करना अनिवार्य होना : वन अधिकार अधिनियम (FRA) की धारा 4(2) के अनुसार, ग्राम सभाओं से पुनर्वास के लिए स्वतंत्र और सूचित सहमति प्राप्त करना अनिवार्य है। इसके अलावा, कानून में उन क्षेत्रों में बसने का अधिकार भी दिया गया है, जहां पुनर्वास का प्रस्ताव है।
- राज्यों से बाघ अभयारण्यों में स्थित आदिवासी गाँवों से संबंधित रिपोर्ट प्रस्तुत करना अनिवार्य होना : मंत्रालय ने राज्यों से बाघ अभयारण्यों में स्थित आदिवासी गाँवों और उनके वन अधिकार दावों की स्थिति का विवरण देते हुए एक रिपोर्ट प्रस्तुत करने को कहा गया है।
- विशेष शिकायत निवारण तंत्र स्थापित करने का निर्देश देना : मंत्रालय द्वारा राज्यों को वन क्षेत्रों से बेदखली संबंधित शिकायतों के निवारण के लिए विशेष शिकायत निवारण तंत्र स्थापित करने का निर्देश दिया गया है।
वन अधिकार अधिनियम (FRA), 2006 क्या है ?
- यह अधिनियम वन में रहने वाले अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारंपरिक वन निवासियों को उनके वन अधिकारों की कानूनी मान्यता प्रदान करने के लिए बनाया गया है।
- उद्देश्य : यह अधिनियम औपनिवेशिक काल और उसके बाद की वन प्रबंधन नीतियों द्वारा इन समुदायों के साथ किए गए अन्याय की भरपाई करने के लिए है। इसका उद्देश्य इन समुदायों को भूमि पर स्थायी अधिकार और वन संसाधनों का उपयोग करने का अधिकार देकर उनके जीवन को सशक्त बनाना है।
प्रमुख प्रावधान :
- स्वामित्व अधिकार प्रदान करना : इसमें वनस्पति मूल के सभी गैर-काष्ठ उत्पादों पर समुदायों को स्वामित्व का अधिकार दिया गया है।
- सामुदायिक अधिकार को मान्यता देना : इसके तहत पारंपरिक उपयोग अधिकारों को मान्यता दी जाती है।
- पर्यावास अधिकार : इस प्रावधान के द्वारा आदिवासी समूहों को उनके पारंपरिक पर्यावासों पर अधिकार मिलते हैं।
- सामुदायिक वन संसाधन (CFR) के संरक्षण और स्थायी प्रबंधन का अधिकार देना : इस प्रावधान के तहत यह समुदायों को पारंपरिक वन संसाधनों के संरक्षण और स्थायी प्रबंधन का अधिकार देता है।
- वन भूमि के उपयोग के लिए ग्राम सभा की सहमति का अनिवार्य होना : यह अधिनियम उन सरकारी कल्याण योजनाओं को भी समर्थन देता है, जो वन भूमि के उपयोग की अनुमति प्रदान करती हैं, बशर्ते उसमें ग्राम सभा की सहमति शामिल हो।
वन अधिकार अधिनियम, 2006 के कार्यान्वयन की राह में आने वाली प्रमुख चुनौतियाँ:
- व्यक्तिगत अधिकारों की मान्यता का अभाव : वन विभाग द्वारा व्यक्तिगत अधिकारों की स्वीकृति में रुकावटें उत्पन्न होती हैं, जो वन संसाधनों पर समुदायों के व्यक्तिगत नियंत्रण को चुनौती देती हैं। उदाहरण के लिए – असम में झूम खेती के कारण अधिकारों की मान्यता प्रक्रिया जटिल हो जाती है, जबकि महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले में अधिकारों की मान्यता में प्रगति के बावजूद सामुदायिक भूमि का अन्य उद्देश्यों के लिए उपयोग होने का खतरा बना रहता है।
- तकनीकी समस्याओं का होना : वनमित्र जैसे डिजिटल प्लेटफॉर्म के कार्यान्वयन में इंटरनेट कनेक्टिविटी की कमी और जनजातीय क्षेत्रों में कम साक्षरता की वजह से अधिकार दावों के प्रसंस्करण में कठिनाई होती है, जिससे इसका प्रभावी कार्यान्वयन मुश्किल हो जाता है।
- कानून की विसंगति के कारण अस्पष्टता और परस्पर विरोधी कानून का होना : वन अधिकार अधिनियम (FRA) भारतीय वन अधिनियम, 1927 और वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 जैसे अन्य कानूनों से मेल नहीं खाता। इस विसंगति के कारण अस्पष्टता उत्पन्न होती है, और कई बार अधिकारी FRA के बजाय परंपरागत वन प्रशासन को प्राथमिकता देते हैं।
- वैध दावेदारों के लिए किसी भी प्रकार वैकल्पिक व्यवस्था का नहीं होना उच्च अस्वीकृति दर का होना : वन कानूनों के तहत कई दावों को बिना स्पष्ट कारण बताए या पुनः अपील का अवसर दिए बिना खारिज कर दिया जाता है, विशेषकर जब दस्तावेज़ों या प्रमाणों की कमी होती है। इससे वैध दावेदारों को कोई वैकल्पिक रास्ता या विकल्प नहीं मिलता है।
- हाशिए पर स्थित समुदायों के अधिकारों का हनन होने की संभावना और ग्राम सभाओं का कमजोर प्रदर्शन का होना : ग्राम सभाओं को अपनी जिम्मेदारियों को ठीक से निभाने के लिए संसाधनों और प्रशिक्षण की कमी होती है। इसके अलावा, स्थानीय प्रभावशाली वर्ग का निर्णय लेने की प्रक्रिया पर हावी होना और हाशिए पर स्थित समुदायों के अधिकारों का हनन होने की संभावना रहती है।
- विकास परियोजनाओं से जुड़ी समस्याएँ और निष्कासन की व्यवस्था का होना : वन अधिकार अधिनियम के बावजूद, विकास परियोजनाएँ जैसे खनन, बांध और राजमार्ग आदि के कारण वनवासी समुदायों को अपने स्थलों से निष्कासित किया जाता है, जिससे उनके अधिकारों का उल्लंघन होता है।
आगे की राह :
- सहकारी शासन को सुनिश्चित किया जाना और प्रतिरोध का समाधान करने की जरूरत : वन अधिकारों का दावा सामूहिक रूप से किया जाना चाहिए और इसके लिए वन विभागों के साथ संवाद को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। साथ ही, FRA के उद्देश्यों के साथ संरक्षण कार्यों को संरेखित करने के लिए किसान उत्पादक संगठनों (FPO) जैसे जनजातीय या वनवासी संगठनों का गठन किया जाना चाहिए। भारतीय वन अधिनियम, 1927 जैसे पुराने कानूनों में संशोधन कर वन अधिकार अधिनियम के साथ संघर्ष को कम किया जा सकता है और सहकारी शासन को सुनिश्चित किया जा सकता है।
- डिजिटल साक्षरता को बढ़ावा देना और तकनीकी क्षमताओं में सुधार करने की आवश्यकता : जनजातीय क्षेत्रों में इंटरनेट कनेक्टिविटी को बढ़ाकर और डिजिटल प्लेटफॉर्म के उपयोग के लिए प्रशिक्षण देने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए। इसके साथ ही, डिजिटल साक्षरता को बढ़ावा देकर दस्तावेज़ीकरण प्रक्रियाओं को सरल और उपयोगकर्ता-अनुकूल बनाना चाहिए।
- वन समुदायों और जैव विविधता की रक्षा के लिए धारणीय प्रथाओं के अधिकारों में संतुलन बनाने की आवश्यकता : बड़ी विकास परियोजनाओं को इस प्रकार से लागू किया जाना चाहिए कि वे सामुदायिक अधिकारों के साथ-साथ वन समुदायों और जैव विविधता की रक्षा के लिए धारणीय प्रथाओं को भी अपनाएं। सह-प्रबंधन मॉडल को बढ़ावा देकर संरक्षण और सामुदायिक सशक्तीकरण के बीच संतुलन बनाने के लिए एक रूपरेखा तैयार करनी चाहिए।
- ग्राम सभाओं में निर्णय-प्रक्रिया को समावेशी बनाने की अत्यंत आवश्यकता : ग्राम सभाओं में निर्णय-प्रक्रिया को समावेशी बनाना चाहिए, ताकि महिलाओं और निम्न जातियों जैसे हाशिये पर स्थित समूहों को लाभों तक समान पहुँच मिल सके।
- हाशिये पर स्थित समूहों को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए ग्राम सभाओं की क्षमता निर्माण पर ध्यान देने की जरूरत : वनवासी समुदायों को वन अधिकार अधिनियम के तहत उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करने के लिए व्यापक अभियान चलाए जाने चाहिए। इसके साथ ही, हाशिये पर स्थित समूहों को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए ग्राम सभाओं की क्षमता निर्माण पर ध्यान दिया जाना चाहिए।
स्रोत – पीआईबी एवं इंडियन एक्प्रेस।
प्रारंभिक परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न :
Q.1. हाल ही में, भारत के जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने राज्यों को बाघ अभयारण्यों में वन अधिकार अधिनियम (FRA), 2006 के अनुपालन को सुनिश्चित करने के लिए कौन सा कदम उठाने का निर्देश दिया है?
- बाघ अभयारण्यों में वन अधिकार दावों की स्थिति पर रिपोर्ट प्रस्तुत करने को कहा गया है।
- वन विभाग को अधिकारों की स्वीकृति प्रक्रिया में तेजी लाने का निर्देश दिया गया है।
- विशेष शिकायत निवारण तंत्र स्थापित करने का निर्देश दिया गया है।
- आदिवासी समुदायों के लिए पुनर्वास योजना को लागू करने का निर्देश दिया गया है।
उपर्युक्त में से कौन सा कथन सही है ?
A. केवल 1 और 4
B. केवल 1 और 3
C. केवल 2 और 3
D. केवल 2 और 4
उत्तर – B
मुख्य परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न :
Q.1. भारत के जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा बाघ अभयारण्यों में वन अधिकार अधिनियम (FRA), 2006 के अनुपालन को सुनिश्चित करने के लिए किस तरह के निर्देश जारी किए गए हैं और इस कानून के कार्यान्वयन में कौन सी प्रमुख चुनौतियाँ है और उसके समाधान की राह क्या है? तर्कसंगत चर्चा कीजिए। ( शब्द सीमा – 250 अंक – 15 )
No Comments