व्यक्तिगत अधिकार और सार्वजनिक हित में संतुलन : निजी बनाम सामुदायिक संपत्ति पर सुप्रीम निर्णय

व्यक्तिगत अधिकार और सार्वजनिक हित में संतुलन : निजी बनाम सामुदायिक संपत्ति पर सुप्रीम निर्णय

( यह लेख यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा के मुख्य परीक्षा के सामान्य अध्ययन प्रश्न पत्र – 2 के अंतर्गत ‘ भारतीय संविधान , भारतीय राजनीति एवं शासन व्यवस्था , संवैधानिक संशोधन , राज्य नीति के नीति- निर्देशक सिद्धांत , न्यायिक समीक्षा ’ खंड से और यूपीएससी के प्रारंभिक परीक्षा के अंतर्गत ‘ भारतीय संविधान की नौवीं अनुसूची , केशवानंद भारती मामला , अनुच्छेद 31C की वैधता , 44वां संविधान संशोधन , आर्थिक लोकतंत्र , समाजवाद , जमींदारी प्रथा, संपत्ति का अधिकार , मौलिक अधिकार , संवैधानिक अधिकार , अनुच्छेद 31A और 31B ’ खंड से संबंधित है। ) 

 

खबरों में क्यों ? 

 

  • हाल ही में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय की नौ न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया, जिसमें यह निर्णय लिया गया कि राज्य केवल ‘सार्वजनिक हित’ के आधार पर निजी संपत्ति पर नियंत्रण या उसका अधिग्रहण नहीं कर सकता है। 
  • न्यायालय ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 39(बी) के तहत सरकारी अधिग्रहण और पुनर्वितरण के लिए संपत्तियों को “समुदाय के भौतिक संसाधन” के रूप में वर्गीकृत करने की बात को नकारते हुए अपने निर्णय में दो प्रमुख मुद्दों पर चर्चा की थी। 
  • सर्वोच्च न्यायालय भारतीय संविधान के अनुच्छेद 31सी की वैधता के मामले में यह तय किया कि क्या संविधान का यह प्रावधान, जो देश में न्यायसंगत संसाधन वितरण को बढ़ावा देने वाले कानूनों को सुरक्षा प्रदान करता है, वह वैध है अथवा अवैध है।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 39(बी) की व्याख्या करते हुए यह भी स्पष्ट किया कि क्या सरकार किसी निजी संपत्ति को “समुदाय के भौतिक संसाधन” के रूप में अधिग्रहित कर सकती है अथवा नहीं। 
  • भारत में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए इस ऐतिहासिक निर्णय से निजी संपत्ति पर राज्य के हस्तक्षेप की सीमा तय होगी और इसका भारत के सामाजिक-आर्थिक नीतियों पर गहरा एवं दूरगामी प्रभाव पड़ेगा।

 

अनुच्छेद 39(बी) क्या है ? 

 

  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 39(बी) में राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों (डीपीएसपी) के अंतर्गत राज्य को यह निर्देश दिया गया है कि वह समाज के सभी वर्गों के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार सुनिश्चित करे, जिससे संपूर्ण समाज की भलाई को बढ़ावा मिले। 
  • इसका उद्देश्य यह है कि आर्थिक और भौतिक संसाधन न्यायपूर्ण तरीके से वितरित किए जाएं ताकि समाज के सभी वर्गों का समुचित विकास हो सके और कोई भी वर्ग शोषण का शिकार न हो।

 

डीपीएसपी बनाम मौलिक अधिकार : 

 

  • संविधान में उल्लेखित मौलिक अधिकार और राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर है। 
  • भारत में नागरिकों को प्राप्त मौलिक अधिकार जहाँ सीधे न्यायालय में लागू हो सकते हैं और इनका उल्लंघन होने पर न्यायालय से तत्काल राहत प्राप्त की जा सकती है, वहीं डीपीएसपी राज्य के लिए केवल मार्गदर्शक सिद्धांत होते हैं। ये राज्य को सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों की दिशा में प्रेरित करते हैं, लेकिन कानूनी रूप से ये बाध्यकारी नहीं होते हैं।

 

मामले की पृष्ठभूमि :  

 

  • यह मामला मुंबई स्थित संपत्ति मालिकों के संघ द्वारा दायर किया गया था, जिन्होंने महाराष्ट्र आवास और क्षेत्र विकास अधिनियम, 1976 के अध्याय VIII-A की संवैधानिकता को चुनौती दी थी। 
  • इस प्रावधान के तहत राज्य को यह अधिकार प्राप्त था कि वह निजी संपत्ति का अधिग्रहण मासिक किराए के सौ गुना मुआवजे के साथ कर सकता था। 
  • यह याचिका 1992 में दायर की गई थी और दो दशकों से भी अधिक समय तक लंबित रहने के बाद 2024 में इसकी सुनवाई की गई, जब इसे नौ न्यायाधीशों की एक बड़ी पीठ के सामने प्रस्तुत किया गया।

 

भारत में संपत्ति के अधिकार में बदलाव से संबंधित न्यायिक व्याख्या की पृष्ठभूमि: 

  • भारत में संपत्ति के अधिकार में न्यायिक व्याख्या के बदलाव की पृष्ठभूमि में कई महत्वपूर्ण घटनाएँ और संवैधानिक संशोधन शामिल हैं। भारत में प्रारंभ में संपत्ति का अधिकार अनुच्छेद 19(1)(एफ) और 31 के तहत मौलिक अधिकार माना जाता था। लेकिन , समय के साथ भारतीय न्यायपालिका और संवैधानिक संशोधनों के माध्यम से संपत्ति के अधिकार में कई महत्वपूर्ण बदलाव करते हुए संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार की जगह इसे केवल एक संवैधानिक या कानूनी अधिकार बना दिया।
  1. शंकरी प्रसाद मामला (1951) : इसमें सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि संविधान में संशोधन करने का अधिकार संसद को है, और यह मौलिक अधिकारों को प्रभावित कर सकता है।
  2. बेला बनर्जी मामला (1954) : इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने यह सिद्धांत दिया कि जब संपत्ति को अनिवार्य रूप से अधिग्रहित किया जाता है, तो सरकार को उचित मुआवजा देना आवश्यक है।
  3. 25 वां संशोधन (1971) : इस संशोधन ने अनुच्छेद 31C के तहत सामाजिक न्याय के उद्देश्यों को पूरा करने वाले कानूनों को मौलिक अधिकारों से ऊपर रखा, जिससे सरकार को संपत्ति के अधिकारों पर नियंत्रण स्थापित करने का अधिकार मिला। 
  4. केशवानंद भारती मामला (1973) : सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 31C की वैधता को बरकरार रखते हुए इसे न्यायिक समीक्षा के अधीन किया, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि यह मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के रूप में न हो।
  5. 44वां संशोधन (1978) : भारत में 44वां संविधान संशोधन ने संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार से हटाकर इसे एक संवैधानिक अधिकार बना दिया, जिसके तहत सरकार को उचित मुआवजे के साथ निजी संपत्ति का अधिग्रहण करने का अधिकार दिया गया।
  6. मिनर्वा मिल्स मामला (1980) : सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि अनुच्छेद 31C के तहत सभी नीति-संवर्धक उद्देश्यों को शामिल नहीं किया जा सकता, और न्यायिक समीक्षा को निष्क्रिय करने वाले प्रावधानों को निरस्त कर दिया।
  7. वामन राव मामला (1981) : इस मामले में यह स्पष्ट किया गया कि नौवीं अनुसूची में किए गए संवैधानिक संशोधन न्यायिक चुनौती से संरक्षित हैं, लेकिन बाद में किए गए संशोधन न्यायिक समीक्षा के अधीन हैं।
  8. विद्या देवी मामला (2020) : सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहा कि बिना उचित प्रक्रिया के किसी व्यक्ति की संपत्ति का जबरन अधिग्रहण मानवाधिकारों और अनुच्छेद 300A के तहत संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है।

 

संपत्ति पर राज्य के नियंत्रण के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव : 

 

सकारात्मक प्रभाव :

  1. सामाजिक न्याय और संसाधनों का पुनर्वितरण सुनिश्चित करना : राज्य का नियंत्रण हाशिए पर पड़े वर्गों के लिए संसाधनों का पुनर्वितरण सुनिश्चित करता है, जिससे सामाजिक न्याय को बढ़ावा मिलता है और आर्थिक असमानताएँ घटती हैं।
  2. संसाधनों का कुशल प्रबंधन सुनिश्चित करना : राज्य यह सुनिश्चित करता है कि भूमि, जल, और खनिज जैसे प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग स्थिर और सार्वजनिक हित में हो, जिससे दीर्घकालिक लाभ होता है।
  3. सार्वजनिक योजनाओं का कार्यान्वयन करने हेतु : राज्य के अधिग्रहण द्वारा बुनियादी ढांचे, स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा जैसे क्षेत्रों में सार्वजनिक योजनाओं का कार्यान्वयन संभव होता है, जो संपूर्ण समाज की समग्र भलाई को बढ़ाने में सहायक होता है।
  4. वंचित वर्गों की रक्षा सुनिश्चित करने हेतु : राज्य कमजोर और वंचित समुदायों को शोषण से बचाने के लिए आवश्यक सुरक्षा प्रदान करता है, जिससे उनके जीवन स्तर में बदलाव और सुधार होता है।

 

नकारात्मक प्रभाव :

 

  1. आर्थिक विकास में रुकावट पैदा करना : राज्य द्वारा संपति पर नियंत्रण या नियमों की अधिकता बाजार आधारित नवाचार और विकास को प्रभावित कर सकती है, जिससे आर्थिक स्थिरता पर नकारात्मक असर पड़ सकता है।
  2. निजी संपत्ति पर प्रतिबंध : राज्य के नियंत्रण के कारण व्यक्तिगत संपत्ति संबंधी अधिकारों में कमी आती है, जो निजी निवेश और उद्यमशीलता को कमजोर कर सकता है।
  3. सुधार और निवेश संबंधी प्रोत्साहन में कमी होना : राज्य द्वारा लगाए गए प्रतिबंध निजी संपत्ति मालिकों को सुधार और निवेश में रुचि लेने से हतोत्साहित कर सकते हैं, जिससे राज्य में होने वाला आर्थिक विकास रुक सकता है। इस प्रकार, राज्य का संपत्ति पर नियंत्रण एक ओर जहां सामाजिक और सार्वजनिक भलाई में योगदान करता है, वहीं दूसरी ओर निजी निवेश और विकास में कुछ बाधाएँ उत्पन्न कर सकता है।

 

निजी संपत्ति से संबंधित सर्वोच्च न्यायालय के हालिया निर्णय के निहितार्थ :

 

 

इस फैसले ने संपत्ति अधिकारों की व्याख्या और सरकारी हस्तक्षेप के दायरे को स्पष्ट किया है, जिसके कई महत्वपूर्ण निहितार्थ हैं:

  1. अनावश्यक सरकारी हस्तक्षेप पर अंकुश लगाना : इस निर्णय ने सरकार की निजी संपत्ति के अधिग्रहण की शक्ति को सीमित किया है, जिससे व्यक्तिगत संपत्ति अधिकारों को प्राथमिकता मिली और अनावश्यक सरकारी हस्तक्षेप को रोका गया है।
  2. राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत (डीपीएसपी) : भारतीय संविधान में वर्णित डीपीएसपी कानूनी रूप से  लागू नहीं हो सकते हैं। लेकिन, न्यायालय ने इसे राज्य के लिए मार्गदर्शक नीतियाँ मानते हुए सरकार से इन सिद्धांतों के तहत काम करने की अपेक्षा की है।
  3. आर्थिक लोकतंत्र के सिद्धांत को बढ़ावा देना : उच्चतम न्यायालय ने संविधान का उद्देश्य “आर्थिक लोकतंत्र” को बढ़ावा देने के रूप में स्पष्ट किया, जिसका अर्थ संसाधनों का समान और न्यायपूर्ण वितरण करना होता है। सरकार का उद्देश्य विशेष आर्थिक नीतियाँ लागू करना नहीं, बल्कि समाज के सभी वर्गों के लिए न्याय सुनिश्चित करना है।
  4. हाशिए पर पड़े समुदायों की सुरक्षा सुनिश्चित करना : इस निर्णय ने यह सुनिश्चित किया है कि विशेषकर छोटे किसानों और वन भूमि पर निर्भर समुदायों को मनमाने तरीके से संपत्ति अधिग्रहण से बचाया जाए। इसके साथ ही सार्वजनिक संसाधनों के जिम्मेदार प्रबंधन की आवश्यकता पर बल दिया गया है।
  5. बाजार की बदलती वास्तविकताओं को भी ध्यान में रखना जरूरी : सर्वोच्च न्यायालय ने इस निर्णय में यह स्वीकार किया गया कि डिजिटल और अंतरिक्ष अन्वेषण जैसे क्षेत्रों में संपत्ति की परिभाषा में बदलाव आ रहा है। न्यायालय ने कहा कि संसाधन वितरण के निर्णय लेते समय उभरते बाजार की वास्तविकताओं को भी ध्यान में रखना जरूरी है।
  6. बाजार-उन्मुख मॉडल का समर्थन करना : यह निर्णय भारत के आर्थिक मॉडल को बाजार-उन्मुख मानते हुए पुष्टि करता है कि संसाधन वितरण में सरकार की भूमिका को इस मॉडल के अनुरूप बनाना चाहिए। जिसमें निजी संपत्ति के अधिकार और सामुदायिक कल्याण के बीच संतुलन बनाए रखना आवश्यक है।
  7. भारत में एक स्थिर और न्यायपूर्ण आर्थिक ढांचा सुनिश्चित करने में सहायक होना : सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए इस निर्णय ने निजी संपत्ति के अधिकारों को सशक्त किया है और सरकारी हस्तक्षेप के दायरे को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया है, जिससे भारत में एक स्थिर और न्यायपूर्ण आर्थिक ढांचा सुनिश्चित करने में मदद मिलती है।

 

आगे की राह : 

 

  1. भारत सहित वैश्विक रूप से उदारीकृत आर्थिक व्यवस्था में बढ़ती असमानता एक गंभीर चुनौती है। सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वह गरीब वर्गों के हितों की रक्षा करे, जो अपनी जीविका के लिए राज्य की सहायता पर निर्भर होते हैं। 
  2. पिछली नीतियों जैसे उच्च कर दरें और संपत्ति शुल्क ने अपनी अपेक्षित सफलता नहीं पाई है , बल्कि इसने कर वंचन और काले धन की समस्या को बढ़ाया ही है। 
  3. विकास और नवाचार पर कोई समझौता नहीं होना चाहिए, लेकिन यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि इसका लाभ सभी वर्गों, विशेष रूप से हाशिए पर रहने वाले लोगों तक पहुँचे। इसके लिए नीतियों को मौजूदा आर्थिक परिप्रेक्ष्य में गंभीर विचार-विमर्श के बाद तैयार किया जाना चाहिए। 
  4. राज्य के लिए संविधान में उल्लिखित आर्थिक न्याय का सिद्धांत ही अंततः मार्गदर्शक सिद्धांत होना चाहिए। 
  5. उच्चतम न्यायालय का हालिया निर्णय भारत में संपत्ति अधिकारों के कानूनी परिप्रेक्ष्य में एक महत्वपूर्ण कदम है। यह निर्णय निजी संपत्ति के अधिग्रहण में उचित प्रक्रिया और मुआवजे की आवश्यकता को रेखांकित करता है, साथ ही यह व्यक्तिगत अधिकारों और सार्वजनिक हित के बीच संतुलन की बात करता है। 
  6. यह निर्णय भविष्य में संपत्ति अधिग्रहण और पुनर्वितरण से संबंधित नीतियों और कानूनी व्याख्याओं को प्रभावित करेगा, जिससे संविधान के सामाजिक न्याय और बाजार आधारित अर्थव्यवस्था के बीच सामंजस्य स्थापित होगा।

 

स्त्रोत – पीआईबी एवं द हिन्दू।

 

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प्रारंभिक परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न : 

 

Q.1. सर्वोच्च न्यायालय ने किसकी व्याख्या करते हुए यह निर्णय दिया कि राज्य केवल ‘सार्वजनिक हित’ के आधार पर निजी संपत्ति का अधिग्रहण नहीं कर सकता है और इससे भारत के किस नीति पर गहरा प्रभाव पड़ेगा?

  1. अनुच्छेद 31C
  2. अनुच्छेद 39(B)
  3. अनुच्छेद 226
  4. न्यायिक स्वतंत्रता एवं समीक्षा नीति
  5. सामाजिक-आर्थिक नीति
  6. सांविधानिक सुधार नीति

उपर्युक्त विकल्पों में से कूट के माध्यम से सही उत्तर का चयन कीजिए।

A. केवल 1, 2, 3 और 6 

B. केवल 2 और 5 

C. केवल 2, 3, 4 और 6 

D. केवल 4 और 6

उत्तर – B   

मुख्य परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न : 

Q.1. सर्वोच्च न्यायालय ने निजी बनाम सामुदायिक संपत्ति दिए पर अपने निर्णयों में व्यक्तिगत संपत्ति अधिकारों और सार्वजनिक हित के बीच किस प्रकार संतुलन स्थापित किया है ? तर्कसंगत व्याख्या कीजिए। ( शब्द सीमा – 250 अंक – 15 )

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