ग्रामीण विकास और पंचायती राज पर संसदीय समिति की सिफारिशें

ग्रामीण विकास और पंचायती राज पर संसदीय समिति की सिफारिशें

पाठ्यक्रम – मुख्य परीक्षा के सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 2 – भारतीय राजव्यवस्था, स्थानीय स्वशासन, सरकारी नीतियाँ और हस्तक्षेप, ग्रामीण स्थानीय निकायों का वित्तपोषण 

प्रारंभिक परीक्षा के लिए : पंचायती राज संस्थाएँ (PRI), 11वीं अनुसूची, 73वां संवैधानिक संशोधन 1993, राज्य वित्त आयोग (SFC), ग्राम सभा, महात्मा गांधी का ‘ग्राम स्वराज’ की परिकल्पना।

 

खबरों में क्यों?

 

  • हाल ही में संसदीय स्थायी समिति ने देश भर में पंचायती राज संस्थाओं को आवंटित धन में हो रही लगातार गिरावट और कटौती पर अपनी चिंता जताई है और केंद्र सरकार से आग्रह किया है कि तुरंत कदम उठाकर ग्रामीण स्थानीय निकायों को पर्याप्त, असंबद्ध और प्रदर्शन आधारित निधि उपलब्ध कराई जाए।

 

ग्रामीण स्थानीय निकायों के वित्तीय स्रोत : 

 

ग्रामीण स्थानीय निकायों के पास वित्तीय संसाधनों के कई स्रोत होते हैं। इन्हें मुख्य रूप से चार श्रेणियों में बाँटा जा सकता है:

  1. स्वयं के संसाधनों से प्राप्त राजस्व (Own Source Revenue – OSR) : पंचायतें अपने स्थानीय संसाधनों से कुछ हद तक राजस्व जुटाती हैं। इनमें संपत्ति कर, वाहन कर जैसी कर आधारित आय शामिल है। इसके अलावा, गैर-कर राजस्व जैसे लाइसेंसिंग शुल्क, जल आपूर्ति शुल्क, जुर्माने और उपयोगकर्ता शुल्क से भी कुछ वित्तीय योगदान मिलता है। हालांकि, यह आय सीमित है। वर्ष 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, प्रत्येक पंचायत केवल लगभग 21,000 रुपए करों और 73,000 रुपए गैर-कर स्रोतों से जुटा पाती है।
  2. साझा/आवंटित राजस्व (Shared Revenue) : राज्य और केंद्र सरकार द्वारा संग्रहित राजस्व का एक हिस्सा पंचायतों को आवंटित किया जाता है। इसमें स्थानीय उपकर, मनोरंजन कर, सामाजिक वानिकी से प्राप्त खनन रॉयल्टी, पट्टा आय आदि शामिल हैं। यह साझा राजस्व पंचायतों की आय का लगभग एक छोटा, लेकिन महत्वपूर्ण हिस्सा होता है।
  3. केंद्रीय वित्त आयोग अनुदान (CFC Grants) : पंचायती राज संस्थाओं का मुख्य वित्तीय स्रोत केंद्र सरकार होती है, जो वित्त आयोग की सिफारिशों के अनुसार अनुदान प्रदान करती है। यह अनुदान बंधित (tied) और असंबद्ध (untied) दोनों प्रकार का होता है। असंबद्ध अनुदान पंचायतों को स्वतंत्र निर्णय लेने की सुविधा प्रदान करता है, जबकि बंधित अनुदान योजनाओं के लिए निर्धारित उद्देश्यों पर खर्च होता है।
  4. राज्य सरकार द्वारा प्रदत्त अनुदान (State Government Grants) एवं केंद्र-राज्य द्वारा संचालित योजनाएँ : राज्य वित्त आयोग की सिफारिश और राज्य सरकार की नीति के तहत पंचायतों को अतिरिक्त निधियाँ दी जाती हैं। इसके अलावा, केंद्र और राज्य द्वारा वित्त पोषित योजनाओं जैसे मनरेगा, प्रधानमंत्री आवास योजना-ग्रामीण (PMAY-G), स्वच्छ भारत मिशन, राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (NRLM) आदि के लिए भी पंचायतों को निधि प्रदान की जाती है।
  5. विशेष अनुदान (Special Grants) : इसमें सांसद/विधायक क्षेत्र विकास योजना (MPLADS), पिछड़ा क्षेत्र विकास कोष (BRGF) जैसी योजनाएँ शामिल हैं। ये अनुदान विशेष उद्देश्यों के लिए दिए जाते हैं और पंचायतों की समग्र वित्तीय जरूरतों को पूरक सहायता प्रदान करते हैं।

 

ग्रामीण स्थानीय निकायों के समक्ष आने वाली वित्तीय चुनौतियाँ और समस्याएँ :

 

  1. पंचायतों के आवंटन में कमी या गिरावट आना : स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट में यह पाया कि पंचायती राज संस्थाओं को लगातार कम होती निधि मिलने से उनके संवैधानिक कर्तव्य निभाने में कठिनाई आती है। इससे राजकोषीय विकेंद्रीकरण प्रभावित होता है और स्थानीय विकास कार्य बाधित हो जाते हैं।
  2. सामाजिक ऑडिट और पारदर्शिता की कमी होना : वर्ष 2024 की रिपोर्ट में ग्राम सभा में कम भागीदारी, सीमित सामाजिक ऑडिट और अपर्याप्त वित्तीय प्रकटीकरण जैसी समस्याओं को उजागर किया गया है। इससे पंचायतों की निगरानी और जवाबदेही कमजोर होती है।
  3. राज्य वित्त आयोग (SFC) के गठन में देरी होना : राज्य वित्त आयोगों के गठन में देरी और उनका सीमित प्रभाव पंचायतों की वित्तीय स्वायत्तता को प्रभावित करता है। समिति ने पाया कि केवल 25 राज्यों ने SFC गठित किया है, जबकि केवल 9 राज्यों ने 6वाँ SFC सक्रिय किया है। पंजाब और तमिलनाडु में SFC का पालन मजबूत है, लेकिन अरुणाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, झारखंड और तेलंगाना में कार्रवाई रिपोर्ट (ATR) में देरी देखी गई।
  4. स्थानीय ज़रूरतें पूरी करने में असमर्थ होना : बिना शर्त और योजना आधारित निधियों में कटौती से पंचायतों की स्थानीय विकास आवश्यकताएँ प्रभावित होती हैं। यह स्वास्थ्य, शिक्षा, जलापूर्ति, सड़क निर्माण और सामाजिक कल्याण जैसे क्षेत्रों में संकट पैदा करता है।
  5. संस्थागत कमजोरियाँ : SC, ST और महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों के रोटेशन से नेतृत्व की निरंतरता में बाधा आती है। ज़िला योजना समितियाँ (DPCs) मौजूद हैं, लेकिन उनका कार्यान्वयन कमजोर है। निर्वाचित प्रतिनिधि पर्याप्त प्रशिक्षण के बिना शासन, बजट और योजना निर्माण में भाग लेते हैं।

 

पंचायती राज संस्थाओं की वित्तीय स्थिति ( 2024 रिपोर्ट ) : 

 

2024 की रिपोर्ट से स्पष्ट होता है कि पंचायतों की वित्तीय स्थिति अत्यधिक असंतुलित और बाह्य सहायता पर निर्भर है:

  • स्व-राजस्व : केवल 1% आय स्थानीय करों से प्राप्त होती है।
  • अनुदान पर निर्भरता : लगभग 95% आय केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा दी गई निधियों से आती है।
  • प्रति पंचायत राजस्व : कर से लगभग 21,000 रुपए, गैर-कर स्रोत से 73,000 रुपए।
  • केंद्र और राज्य अनुदान : केंद्र सरकार लगभग 17 लाख रुपए प्रति पंचायत देती है, जबकि राज्य सरकार 3.25 लाख रुपए।
  • राजस्व व्यय अनुपात : प्रति राज्य GSDP के मुकाबले 0.6% से भी कम, बिहार में 0.001% से लेकर ओडिशा में 0.56% तक।
  • राज्यवार असमानताएँ : केरल और पश्चिम बंगाल में राजस्व उच्च (60 लाख और 57 लाख रुपए), आंध्र प्रदेश और पंजाब में बहुत कम (6 लाख रुपए से कम)।
  • इस आंकड़े से स्पष्ट है कि अधिकांश पंचायतें वित्तीय रूप से कमजोर हैं और उनके विकास कार्य बाहरी अनुदानों पर निर्भर हैं।

 

पंचायती राज संस्थाओं के सशक्तिकरण की सुधार की दिशा :

 

 

  1. प्रदर्शन आधारित निधि / संसाधन आवंटन की आवश्यकता : पंचायतों को पर्याप्त, असंबद्ध और प्रदर्शन आधारित निधि दी जानी चाहिए। इससे उन्हें स्थानीय विकास के निर्णय लेने की स्वतंत्रता और वित्तीय स्थिरता मिलेगी।
  2. स्थानीय करों के माध्यम से राजस्व वृद्धि करने की जरूरत : पंचायतों को स्थानीय कर और शुल्क संग्रह बढ़ाने की दिशा में सक्रिय होना चाहिए। राज्य सरकार को इस प्रक्रिया में तकनीकी और प्रशासनिक सहायता देनी होगी।
  3. निधि आवंटन में सुधार की जरूरत : पंचायती राज मंत्रालय को वित्त मंत्रालय और पंद्रहवें वित्त आयोग के साथ समन्वय करके निधि आवंटन में कमी को तत्काल दूर करना चाहिए। सुसंगत और असंबद्ध वित्तीय सहायता दी जानी चाहिए।
  4. राज्य वित्त आयोग (SFC) का सक्रिय कार्यान्वयन सुनिश्चित करने की जरूरत : राज्यों को SFC की स्थापना और नियमित संचालन सुनिश्चित करना चाहिए। ATR (Action Taken Report) समय पर प्रस्तुत करनी चाहिए।
  5. पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने की आवश्यकता : पंचायतों को निधियों के डायवर्जन से बचाने के लिए डिजिटल ऑडिट, RTI प्रकटीकरण और मजबूत खरीद प्रक्रियाएँ लागू करनी होंगी।
  6. डिजिटल अवसंरचना में सुधार करने एवं उसमें पारदर्शिता सुनिश्चित करने की जरूरत : वर्तमान समय में ई-पंचायतों के माध्यम से 2.5 लाख से अधिक ग्रामीण निकायों को ऑटोमेशन की दिशा में लाया गया है। इससे सरकारी योजनाओं तक पहुँच आसान हुई है, बेहतर शासन और पारदर्शिता सुनिश्चित हुई है।

 

पंचायती राज का ऐतिहासिक और सामाजिक महत्व : 

 

 

  • 1950 के दशक में हिंदी साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु ने अपनी कहानी ‘पंचलाइट’ में उस समय के ग्रामीण भारत का चित्रण किया था, जहाँ अधिकांश घरों में बिजली नहीं थी और लोग छोटे दीपक या पेट्रोमैक्स का उपयोग करते थे। पंचायत ही ऐसे संसाधनों की व्यवस्था करती थी। 
  • आज पंचायती राज व्यवस्था के संस्थागतरण ने ग्रामीण भारत का चेहरा बदल दिया है। 1993 के 73वें संविधान संशोधन ने पंचायतों को अधिकार, जिम्मेदारी और संसाधन प्रदान किए, जिससे स्थानीय शासन की लोकतांत्रिक त्रि-स्तरीय प्रणाली सुदृढ़ हुई।
  • आज पंचायतें न केवल योजना और विकास की प्रक्रिया में लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करती हैं, बल्कि स्थानीय संसाधनों की पहचान और उनका समुचित उपयोग भी करती हैं। ये संस्थाएँ ग्राम स्वराज के महात्मा गांधी के सपने को साकार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। प्रौद्योगिकी के इष्टतम उपयोग से ई-पंचायतों के माध्यम से 2.5 लाख से अधिक ग्रामीण निकायों को स्वचालित किया गया है, जिससे बेहतर प्रशासन और पारदर्शिता सुनिश्चित हुई है।
  • पंचायती राज मंत्रालय लगातार इस दिशा में प्रयासरत है कि पंचायतें सशक्त, समावेशी और समुदाय-केन्द्रित योजना प्रक्रिया के माध्यम से अपने क्षेत्र का समग्र विकास कर सकें। वित्तीय सुधार, डिजिटल अवसंरचना, प्रदर्शन-आधारित निधि आवंटन और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के उपाय पंचायती राज संस्थाओं की दीर्घकालिक सफलता के लिए अत्यंत आवश्यक हैं।
  • इस प्रकार, पंचायती राज संस्थाओं की वित्तीय स्थिरता और संस्थागत मजबूती ग्रामीण भारत के समग्र विकास की आधारशिला है। समय पर वित्तीय हस्तांतरण, स्थानीय कर राजस्व सृजन, पारदर्शिता, जवाबदेही और डिजिटल प्रशासन पंचायतों को सशक्त बनाते हैं और उन्हें वास्तविक रूप से आत्मनिर्भर, विकेंद्रीकृत और सक्षम शासन इकाई के रूप में स्थापित करते हैं।

 

निष्कर्ष : 

 

पंचायती राज संस्थाओं की वित्तीय सशक्तता और प्रभावी कार्यान्वयन ग्रामीण विकास की नींव हैं। इसे सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है:

  • समय पर और पर्याप्त निधि हस्तांतरण।
  • स्थानीय कर संग्रह और स्वराज्य को बढ़ावा।
  • पारदर्शिता और जवाबदेही की मजबूत व्यवस्था।
  • डिजिटल और तकनीकी अवसंरचना का पूर्ण उपयोग।
  • संस्थागत सुधार और नेतृत्व प्रशिक्षण।
  • जब तक ये उपाय प्रभावी रूप से लागू नहीं होंगे, पंचायती राज संस्थाएँ अपने पूर्ण सामर्थ्य तक नहीं पहुँच पाएंगी। 
  • सतत् विकास, सामाजिक न्याय और समानता के लिए यह अनिवार्य है कि ग्रामीण स्थानीय निकायों को न केवल वित्तीय संसाधन बल्कि निर्णय लेने की स्वतंत्रता और प्रशासनिक क्षमता भी प्राप्त हो।
  • ग्रामीण भारत में पंचायती राज केवल शासन की इकाई नहीं, बल्कि लोकतंत्र का वास्तविक चेहरा हैं। इन्हें मजबूत बनाना न केवल संवैधानिक आवश्यकता है, बल्कि सामाजिक, आर्थिक और तकनीकी रूप से सशक्त ग्रामीण भारत का मार्ग प्रशस्त करता है। 
  • वर्तमान समय में पंचायती राज संस्थाएं केवल योजनाओं का कार्यान्वयन ही नहीं करते, बल्कि यह लोगों की भागीदारी, संसाधन पहचान और स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप विकास सुनिश्चित करते हैं। अतः महात्मा गांधी के ‘ग्राम स्वराज’ का सपना अब पंचायतों के माध्यम से साकार हो रहा है।

 

स्त्रोत – पी. आई. बी एवं द हिन्दू। 

 

प्रारंभिक परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न : 

 

Q.1.  पंचायती राज संस्थाओं के वित्तीय स्रोतों में कौन-कौन से शामिल हैं?

  1. स्वयं के संसाधनों से प्राप्त राजस्व (OSR)
  2. साझा/आवंटित राजस्व (Shared Revenue)
  3. केंद्रीय वित्त आयोग अनुदान (CFC Grants)
  4. राज्य सरकार द्वारा प्रदत्त अनुदान एवं केंद्र-राज्य योजनाएँ
  5. विशेष अनुदान (Special Grants)
  6. केवल राज्य करों पर निर्भर रहना 

नीचे दिए गए कूट के आधार पर सही उत्तर का चयन कीजिए : 

A. केवल 1, 2, 3, 4 और 6 

B. केवल 1, 2, 3, 4 और 5 

C. इनमें से कोई नहीं।

D. उपरोक्त सभी। 

उत्तर – B
व्याख्या : 

  • पंचायती राज संस्थाओं के वित्तीय स्रोत व्यापक हैं और इनमें स्थानीय कर/शुल्क, साझा राजस्व, केंद्र और राज्य अनुदान, तथा विशेष अनुदान शामिल हैं। केवल राज्य करों पर निर्भर रहना सही नहीं है।

 

मुख्य परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न : 

 

Q.1. चर्चा कीजिए कि ग्रामीण निकायों को पर्याप्त वित्तीय संसाधन न मिलने के कारण ग्रामीण विकास पर कौन-कौन से नकारात्मक प्रभाव पड़ सकते हैं? इन प्रभावों को कम करने के लिए किन उपायों को लागू किया जा सकता है? ( शब्द सीमा – 250 अंक – 15 )

Q.2. आपके विचार में भारत में शक्ति के विकेंद्रीकरण ने स्थानीय स्तर पर शासन और विकास के स्वरूप को किस हद तक प्रभावित किया है? तर्कसंगत मत प्रस्तुत कीजिए। ( शब्द सीमा – 250 अंक – 15 ) 

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