एक राष्ट्र/ देश – एक चुनाव

एक राष्ट्र/ देश – एक चुनाव

( यह लेख यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा के मुख्य परीक्षा के सामान्य अध्ययन प्रश्न पत्र – 2 के अंतर्गत ‘ शासन एवं राजव्यवस्था , भारतीय संविधान , उच्चतम न्यायालय , विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिए सरकारी नीतियां और हस्तक्षेप, भारतीय संविधान का संघीय चरित्र और केंद्र – राज्य संबंध ’ खंड से और यूपीएससी के प्रारंभिक परीक्षा के अंतर्गत ‘ एक राष्ट्र – एक चुनाव , लोकसभा एवं राज्य विधानसभा का चुनाव , भारत का चुनाव आयोग , नीति आयोग , विधि आयोग और संविधान समीक्षा आयोग ’ खंड से संबंधित है। )

 

खबरों में क्यों ? 

 

 

  • हाल ही में, केंद्रीय मंत्रिमंडल ने भारत के पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली एक उच्चस्तरीय समिति की सिफारिशों को स्वीकार करते हुए सर्वसम्मति से भारत में ‘ एक राष्ट्र, एक चुनाव ’ प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है, जिसमें लोकसभा और राज्य विधानसभा के चुनावों को एक साथ कराने का प्रस्ताव शामिल है। 
  • इस प्रस्ताव का उद्देश्य चुनावी प्रक्रिया को सरल और कम खर्चीला बनाना है, लेकिन इस विचार को कई राजनीतिक दलों और नागरिक समाज के लोगों के द्वारा विरोध का सामना करना पड़ रहा है।
  • इस विधेयक को आगामी शीतकालीन सत्र में संसद में प्रस्तुत किए जाने की संभावना है।

 

समिति की मुख्य सिफारिशें क्या है ? 

  1. भारत में लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनावों को एक साथ कराना।
  2. आम चुनाव के 100 दिनों के भीतर नगरपालिका और पंचायत चुनाव को संपन्न कराना।
  3. भारत में एक साथ चुनाव कराने के लिए देश में संवैधानिक संशोधन की जरूरत होगी क्योंकि एक साथ चुनाव कराने से चुनावी खर्चों के लागत में कमी आएगी।
  4. भारत में लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनावों को एक साथ कराने से इसकी प्रशासनिक स्थिरता सुदृढ़ होगी क्योंकि देश का लगातार चुनावी मोड में रहने के कारण इसके शासन और विधायी कार्य प्रभावित होते हैं, जिसे कम किया जा सकेगा।

 

एक राष्ट्र – एक चुनाव का परिचय : 

 

 

  • भारत में लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के मुद्दे पर लंबे समय से चर्चा चल रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस विचार का समर्थन करते हुए इसे आगे बढ़ाने का प्रयास किया है। चुनाव आयोग, नीति आयोग, विधि आयोग और संविधान समीक्षा आयोग ने भी इस पर विचार किया है। हाल ही में विधि आयोग ने इस मुद्दे पर विभिन्न राजनीतिक दलों, क्षेत्रीय राजनीतिक दलों और प्रशासनिक अधिकारियों की राय जानने के लिए एक तीन दिवसीय सम्मेलन आयोजित किया था।
  • विधि आयोग द्वारा आयोजित इस सम्मेलन में कुछ राजनीतिक दलों ने ‘एक राष्ट्र – एक चुनाव’ के विचार का समर्थन किया, जबकि अधिकांश राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने इसका विरोध किया। उनका तर्क है कि यह विचार भारतीय लोकतांत्रिक प्रक्रिया और संघीय ढांचे के खिलाफ है। जब तक इस पर आम सहमति नहीं बनती, इसे लागू करना संभव नहीं होगा।
  • स्वस्थ और निष्पक्ष चुनाव किसी भी लोकतंत्र की आधारशिला होते हैं। भारत जैसे विशाल देश में निष्पक्ष चुनाव कराना हमेशा से एक चुनौती रहा है। हर वर्ष किसी न किसी राज्य में चुनाव होते रहते हैं, जिससे देश हमेशा चुनावी मोड में रहता है। इससे प्रशासनिक और नीतिगत निर्णय प्रभावित होते हैं और देश के खजाने पर भारी बोझ पड़ता है। इस समस्या से निपटने के लिए नीति निर्माताओं ने लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने का विचार प्रस्तुत किया। 
  • एक देश – एक चुनाव में पंचायत और नगरपालिकाओं के चुनाव शामिल नहीं हैं।
  • ‘एक राष्ट्र – एक चुनाव’ का अर्थ है कि पूरे देश में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हों। इस चुनावी प्रक्रिया में मतदाता एक ही दिन या चरणबद्ध तरीके से वोट डालेंगे। यह विचार कितना सही या गलत है, इस पर बहस जारी है, लेकिन इसे लागू करने के लिए इसकी विशेषताओं की जानकारी होना आवश्यक है।

 

एक राष्ट्र – एक चुनाव की पृष्ठभूमि :

 

 

  • भारत की आजादी के बाद सन 1952, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ ही होते थे/ हुआ था,  लेकिन 1968-69 में कई विधानसभाएं समय से पहले भंग हो गईं और 1970 में लोकसभा भी भंग हो गई, जिससे यह परंपरा टूट गई।
  • ‘ एक राष्ट्र – एक चुनाव ’ का विचार सन 1983 में भारत के चुनाव आयोग ने भी प्रस्तुत किया था और सन 1999 में लॉ कमीशन ( विधि आयोग ) ने भी इसे समर्थन दिया है। 
  • सन 2002 में संविधान समीक्षा आयोग ने भी इसकी सिफारिश की है। 
  • इस विचार के पक्ष में यह तर्क है कि इससे चुनावी खर्च में कमी आएगी और प्रशासनिक संसाधनों का बेहतर उपयोग होगा, वहीं, विरोध में यह तर्क दिया जाता है कि यह भारत के लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था से संबंधित चुनौतियों और संवैधानिक संशोधनों की मांग करता है। अतः ‘ एक राष्ट्र – एक चुनाव ’ की व्यवहार्यता और प्रभाव पर संतुलित दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है।

 

‘ एक राष्ट्र – एक चुनाव ’ के पक्ष में तर्क : 

 

  • ‘ एक राष्ट्र – एक चुनाव ’ की अवधारणा भारत में एक विकासोन्मुखी विचार है। लगातार होने वाले चुनावों के कारण देश में बार-बार आदर्श आचार संहिता लागू करनी पड़ती है, जिससे सरकार आवश्यक नीतिगत निर्णय नहीं ले पाती और विभिन्न योजनाओं को क्रियान्वित करने में समस्या उत्पन्न होती है। इससे विकास कार्य प्रभावित होते हैं। आदर्श आचार संहिता चुनावों की निष्पक्षता बनाए रखने के लिए बनाई गई थी।
  • भारत में किसी चुनाव के अधिसूचना जारी होने के बाद सत्ताधारी दल किसी परियोजना की घोषणा, नई योजनाओं  की शुरुआत या वित्तीय मंजूरी नहीं दे सकता। इसका उद्देश्य सत्ताधारी दल को चुनाव में अतिरिक्त लाभ से रोकना है। यदि लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव एक साथ कराया जाए, तो आदर्श आचार संहिता कुछ ही समय तक लागू रहेगी और विकास कार्य निर्बाध रूप से पूरे किए जा सकेंगे।
  • ‘ एक राष्ट्र – एक चुनाव ’ से बार-बार चुनावों में होने वाले भारी खर्च में कमी आएगी। बार-बार चुनाव होने से सरकारी खजाने पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ पड़ता है। 
  • ‘ एक राष्ट्र – एक चुनाव ’ से काले धन और भ्रष्टाचार पर रोक लगाने में मदद मिलेगी। चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों द्वारा काले धन का इस्तेमाल किया जाता है। हालांकि प्रत्याशियों के खर्च की सीमा निर्धारित है, लेकिन राजनीतिक दलों के खर्च की कोई सीमा नहीं होती है। लगातार चुनाव होने से राजनेताओं और पार्टियों को सामाजिक समरसता भंग करने का मौका मिलता है, जिससे अनावश्यक तनाव की परिस्थितियां बनती हैं। एक साथ चुनाव कराने से इन समस्याओं से निजात पाई जा सकती है।
  • ‘ एक राष्ट्र – एक चुनाव ’ से सरकारी कर्मचारियों और सुरक्षा बलों को बार-बार चुनावी ड्यूटी पर लगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। इससे उनका समय बचेगा और वे अपने कर्तव्यों का पालन सही तरीके से कर पाएंगे। चुनाव कराने के लिए शिक्षकों और सरकारी कर्मचारियों की सेवाएं ली जाती हैं, जिससे उनका कार्य प्रभावित होता है। इसके अलावा, भारी संख्या में पुलिस और सुरक्षा बलों की तैनाती भी की जाती है, जिससे आम जन-जीवन प्रभावित होता है।

 

‘ एक राष्ट्र – एक चुनाव ’ के विपक्ष में तर्क : 

  • अनुभवजन्य आंकड़ों की कमी : एक साथ चुनाव कराने के लाभों के समर्थन में पर्याप्त आंकड़े नहीं हैं। इससे यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि यह प्रणाली कितनी प्रभावी होगी।
  • चुनावी प्रक्रिया की लंबी समय – सीमा : आम चुनावों में पहले ही काफी समय लगता है, और एक साथ चुनाव कराने से यह प्रक्रिया और लंबी हो सकती है, जिससे प्रशासनिक बोझ बढ़ सकता है।
  • भारत के संघीय ढांचे के खिलाफ होना : यह प्रस्ताव भारत के संघीय ढांचे के खिलाफ है, जहां विभिन्न स्तरों पर अलग-अलग चुनाव होते हैं। इससे राज्यों की स्वायत्तता प्रभावित हो सकती है।
  • संवैधानिक और प्रशासनिक चुनौतियाँ : अगर किसी राज्य की विधानसभा अपने कार्यकाल से पहले भंग हो जाती है, तो नए मध्यावधि चुनाव होंगे, लेकिन नई विधानसभा का कार्यकाल “नियत तिथि” से पांच वर्ष बाद समाप्त होगा। यह प्रावधान एक साथ चुनावों के जरिए लागत में कटौती के मूल विचार के खिलाफ है।
  • संविधानिक प्रावधानों के प्रति विरोधाभासी होना : भारतीय संविधान के अनुच्छेद 85(2)(ख) के अनुसार राष्ट्रपति लोकसभा को और अनुच्छेद 174(2)(ख) के अनुसार राज्यपाल विधानसभा को पाँच वर्ष से पहले भी भंग कर सकते हैं। अनुच्छेद 352 के तहत युद्ध, बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में राष्ट्रीय आपातकाल लगाकर लोकसभा का कार्यकाल बढ़ाया जा सकता है। इसी तरह अनुच्छेद 356 के तहत राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है और ऐसी स्थिति में संबंधित राज्य के राजनीतिक समीकरण में अप्रत्याशित उलटफेर होने से वहाँ फिर से चुनाव की संभावना बढ़ जाती है। ये सारी परिस्थितियाँ एक देश एक चुनाव के एकदम विपरीत है।
  • संघीय ढाँचे के विपरीत : ‘ एक राष्ट्र – एक चुनाव ’ की अवधारणा भारत के संघीय ढाँचे के विपरीत होगी और संसदीय लोकतंत्र के लिए घातक कदम सिद्ध हो सकता है। लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव एक साथ करवाने पर कुछ विधानसभाओं के मर्जी के खिलाफ उनके कार्यकाल को बढ़ाया या घटाया जायेगा जिससे राज्यों की स्वायत्तता प्रभावित हो सकती है।
  • राष्ट्रीय और क्षेत्रीय मुद्दों का टकराव : अगर लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करवाए गए तो इस बात की सबसे ज्यादा संभावना है कि राष्ट्रीय मुद्दों के सामने क्षेत्रीय मुद्दे गौण हो जाएँ या इसके विपरीत क्षेत्रीय मुद्दों के सामने राष्ट्रीय मुद्दे अपना अस्तित्व खो दें। लोकसभा के चुनाव जहाँ राष्ट्रीय सरकार के गठन के लिए होते हैं, वहीं विधानसभा के चुनाव राज्य सरकार का गठन करने के लिए होते हैं। इसलिए लोकसभा में जहाँ राष्ट्रीय महत्त्व के मुद्दों को प्रमुखता दी जाती है, तो वहीं विधानसभा चुनावों में क्षेत्रीय महत्त्व के मुद्दों की प्राथमिकता रहती हैं।
  • जनप्रतिनिधियों को जनता के प्रति लगातार जवाबदेह बने रहना : लोकतंत्र को जनता का शासन कहा जाता है। देश में संसदीय प्रणाली होने के नाते अलग-अलग समय पर चुनाव होते रहते हैं और जनप्रतिनिधियों को जनता के प्रति लगातार जवाबदेह बने रहना पड़ता है। इसके अलावा कोई भी पार्टी या नेता एक चुनाव जीतने के बाद निरंकुश होकर काम नहीं कर सकता क्योंकि उसे छोटे-छोटे अंतरालों पर किसी न किसी चुनाव का सामना करना पड़ता है।
  • बड़ी आबादी और आधारभूत संरचना की कमी : भारत जनसंख्या के मामले में विश्व का दूसरा सबसे बड़ा देश है। लिहाजा बड़ी आबादी और आधारभूत संरचना के अभाव में लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव एक साथ कराना तार्किक प्रतीत नहीं होता। अतः भारत में ‘ एक राष्ट्र – एक चुनाव ’ करवाना संभव प्रतीत नहीं होता है।

 

समाधान की / आगे की राह :

 

 

  • भारत में ‘ एक राष्ट्र – एक चुनाव ’ की अवधारणा को लागू करने में कई चुनौतियाँ हैं, जिनमें राजनीतिक दलों का विरोध प्रमुख है। भारत, जो विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, अक्सर चुनावी चक्रव्यूह में फंसा रहता है के लिए इस अवधारणा को लागू करने में कोई बड़ी खामी नहीं है, लेकिन भारत के वर्त्तमान राजनीतिक  परिस्थिति में इसे लागू करना आसान भी नहीं है।

चुनाव सुधार की आवश्यकता : भारत में व्यापक चुनाव सुधार की आवश्यकता है, जिसमें निम्नलिखित शामिल हैं:

  1. जन-प्रतिनिधित्व कानून में सुधार।
  2. कालेधन पर रोक।
  3. राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण पर रोक।
  4. लोगों में राजनीतिक जागरूकता पैदा करना।

इन सुधारों से भारत में समावेशी लोकतंत्र की स्थापना हो सकेगी।

एक साथ चुनाव कराने के लाभ : एक साथ चुनाव कराने का प्रस्ताव प्रशासनिक और आर्थिक दृष्टिकोण से लाभकारी हो सकता है। इससे चुनावी खर्च में कमी आएगी और प्रशासनिक कार्यों में भी सुगमता होगी। हालांकि, इसके संघीय ढांचे और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं पर पड़ने वाले प्रभावों को ध्यान में रखते हुए इसे सावधानीपूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। 

अन्य योजनाओं से तुलना : यदि देश में ‘ एक देश – एक कर ’ यानी GST या ‘ एक देश – एक राशन कार्ड ’ जैसी योजनाएं लागू हो सकती हैं, तो ‘ एक देश – एक चुनाव ’ जैसी पहल को भी लागू किया जा सकता है। इसके लिए सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को इस मुद्दे पर खुलकर बहस और चर्चा करनी चाहिए, ताकि इसे जमीनी स्तर पर उतारकर क्रियान्वित किया जा सके।

इस प्रकार, ‘ एक राष्ट्र – एक चुनाव ’ की अवधारणा को लागू करने के लिए राजनीतिक सहमति और संवैधानिक संशोधनों की आवश्यकता होगी। यह वर्तमान समय की जरूरत है कि सभी दल इस मुद्दे की प्रासंगिकता पर विचार करें और इसे सफलतापूर्वक लागू करने के लिए मिलकर काम करें।

स्त्रोत –  द हिन्दू एवं पीआईबी।

 

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प्रारंभिक परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न : 

 

Q.1. भारत में ‘ एक राष्ट्र – एक चुनाव’ के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए।

  1. सन 1971 में लोकसभा चुनाव अपने समय से पहले हो गए थे।
  2. भारत में सन 1952, 1957, 1962, 1967 के आम चुनावों में  ‘एक राष्ट्र – एक चुनाव’ हो चुका है। 
  3. भारत में यदि एक साथ चुनाव की व्यवस्था लागू करनी है, तो संविधान की मूल संरचना में पर्याप्त बदलाव की आवश्यकता होगी।
  4. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 2 के तहत संसद द्वारा किसी नए राज्य को भारतीय संघ में शामिल किया जा सकता है।

उपरोक्त कथन / कथनों में से कौन सा कथन सही है ?  

A. केवल 1 और 3

B. केवल 2 और 4

C. इनमें से कोई नहीं।

D. इनमें से सभी।

उत्तर – D

 

मुख्य परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न : 

 

Q.1.” भारत की शासन व्यवस्था का चरित्र संघीय और एकात्मक है। ” इस कथन के संदर्भ में भारत में ‘ एक राष्ट्र – एक चुनाव ‘ का लागू होना किस प्रकार भारत में केंद्र-राज्य संबंधों के बीच तनावों  पैदा करेगा? अपने तर्कों के साथ इस पर विस्तृत चर्चा करें। ( शब्द सीमा – 250 अंक -15 )

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