28 Oct राज्यपाल बनाम राज्य सरकार : संवैधानिक शक्तियों और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में संतुलन की चुनौतियाँ
( यह लेख यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा के मुख्य परीक्षा के सामान्य अध्ययन प्रश्न पत्र – 2 के अंतर्गत ‘ भारत की राजनीति एवं शासन व्यवस्था , सर्वोच्च न्यायालय , राष्ट्रपति , राज्यपाल , अनुच्छेद 200, अनुच्छेद 201, अनुच्छेद 361, पुंछी आयोग, वेंकटचलैया आयोग, अनुच्छेद 31 A, विभिन्न समितियों द्वारा राज्यपाल की शक्तियों से संबधित सिफारिशें ’ खंड से और यूपीएससी के प्रारंभिक परीक्षा के अंतर्गत ‘ संसद और राज्य विधायिका- संरचना, कार्य, कार्य-संचालन, शक्तियाँ एवं विशेषाधिकार , राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच शक्तियों का पृथक्करण ’ खंड से संबंधित है। )
खबरों में क्यों ?
- हाल ही में तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि और मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन के बीच एक नया राजनीतिक विवाद उभरा है, जिसका कारण प्रसार भारती के कार्यक्रम में राज्यगीत ‘तमिल थाई वझथु’ की गलत प्रस्तुति है।
- इस गीत से ‘द्रविड़ भूमि’ की प्रशंसा वाला एक पद गायब था, जिसे अनजाने में हुई गलती बताया गया।
- तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ने तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि के “आर्य” संदर्भ पर सवाल उठाते हुए इसे नस्लवादी कहा, जबकि रवि ने इसे मुख्यमंत्री की संवैधानिक गरिमा के खिलाफ बताया।
- तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि ने ‘द्रविड़ अवधारणा’ को ‘पुरानी पड़ चुकी विचारधारा’ कहा, जो अलगाववाद को बढ़ावा देती है।
- उन्होंने आरोप लगाया कि पिछले 50 वर्षों में तमिलनाडु में विषाक्तता फैलाई गई है। यह स्थिति शासन की कार्यक्षमता को प्रभावित कर रही है और यह सुझाव दिया जा रहा है कि तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि को उसके पद से हटाया जाना चाहिए, क्योंकि उनके और मुख्यमंत्री के बीच के संबंधों में कोई सुधार नहीं दिख रहा है।
- भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह स्थिति राज्य की लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए चिंता का विषय है।
भारत में राज्यपाल के पद से जुड़ी प्रमुख चुनौतियाँ :
राज्यपाल की नियुक्ति :
- भारत में राज्यपाल की नियुक्ति केंद्र सरकार की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
- भारत में राज्यपाल की नियुक्ति केंद्र सरकार की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा किए जाने से राज्यपाल की राजनीतिक तटस्थता और निष्पक्षता पर भी हमेशा सवाल खड़े होते हैं।
- भारत में कई बार केंद्र में सत्तारूढ़ दल के किसी सदस्य को राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया गया या राजनीतिक कारणों से उसे हटा दिया गया या स्थानांतरित कर देने का उदहरण भी देखने को मिलता है।जो भारत में राज्यपाल के पद की गरिमा और उनकी एक ही राज्य में स्थिरता की कमजोरी के रूप में देखा जाता है।
भारत में राज्यपाल की शक्तियाँ और भूमिका :
- भारत के संविधान द्वारा राज्यपाल को विभिन्न प्रकार की शक्तियाँ और अनेक प्रकार की भूमिकाएं प्रदान की गई है।
- भारत में राज्यपाल को राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों पर सहमति देना, मुख्यमंत्री एवं अन्य मंत्रियों की नियुक्ति करना, राज्य के विभिन्न विषयों पर राष्ट्रपति को रिपोर्ट भेजना और कुछ राज्यों में विशेष उत्तरदायित्वों का निर्वहन करने की शक्तियां प्राप्त है।
- भारत में राज्यपाल को संविधान द्वारा प्रदत भूमिकाएँ और शक्तियाँ प्रायः राज्यपाल के विवेकाधीन (discretion) होती हैं, जिससे कई बार कई राज्यों में निर्वाचित राज्य सरकार और राज्यपाल के बीच टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
राज्यपालों की जवाबदेही और प्रतिरक्षा :
- भारत में राज्यपाल को संबंधित राज्य सरकार में राष्ट्रपति के समकक्ष माना जाता है।
- राज्यपाल के संदर्भ में अक्सर यह देखा गया है कि वे केंद्र सरकार के एजेंट के रूप में कार्य करते देखा गया है।
- भारत में राज्यपालों की नियुक्ति अक्सर संबंधित निर्वाचित राज्य सरकारों की शक्ति पर नियंत्रण रखने के लिए नियुक्त किया जाता है।
- भारत में राज्यपाल को केंद्र सरकार की मर्जी से राष्ट्रपति द्वारा उनके पद से हटाया जा सकता है।
- वास्तविकता में भारत में राज्यपाल इस बात से आश्वस्त होते हैं कि जब तक वे केंद्र सरकार के अनुरूप कार्य करते रहेंगे, वे अपने पद पर बने रहेंगे।
- भारत के संविधान के अनुच्छेद 361 के अनुसार भारत में राज्यपाल राज्य के प्रमुख के रूप में वे पद पर बने रहते हुए अपने कार्यों के लिए न्यायालयों के प्रति भी जवाबदेह नहीं होते हैं।
भारतीय संविधान द्वारा प्रदत राज्यपाल की शक्तियाँ :
भारत के संविधान में राज्यपाल की शक्तियों का उल्लेख है जो संविधान के अनुच्छेद 200 और अनुच्छेद 201 द्वारा विधेयकों को पारित करने के संबंध में परिभाषित हैं।
संविधान के अनुच्छेद 200 और अनुच्छेद 201 के अनुसार, जब राज्य विधानमंडल द्वारा राज्यपाल के समक्ष कोई विधेयक प्रस्तुत किया जाता है तो उनके पास निम्नलिखित विकल्प होते हैं:-
- वह उस विधेयक पर सहमति दे सकता है, जिसका अर्थ है कि विधेयक एक अधिनियम या कानून बन जाता है।
- वह विधेयक पर अपनी सहमति नहीं डे सकता है या उस विधेयक को अपने रोक सकता है, जिसका अर्थ है कि उक्त को विधेयक निरस्त कर दिया गया है।
- धन विधेयक को छोड़कर वह किसी भी विधेयक को या उस विधेयक के कुछ उपबंधों पर पुनर्विचार के अनुरोध वाले संदेश के साथ राज्य विधानमंडल को वापस भेज सकता है।
- यदि उक्त विधेयक राज्य विधानमंडल द्वारा संशोधनों के साथ या बिना संशोधनों के दोबारा पारित किया जाता है तो राज्यपाल को उस विधेयक पर अपनी सहमति देनी ही पड़ती है।
- राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित कर सकता है, जो या तो विधेयक पर सहमति दे सकता है या अपनी अनुमति नहीं भी डे सकता है, या राज्यपाल को विधेयक को पुनर्विचार के लिए राज्य विधानमंडल को वापस भेजने का निर्देश दे सकता है।
- भारत में किसी भी राज्य का कोई भी विधेयक यदि उस राज्य के उच्च न्यायालय की स्थिति को खतरे में डाल सकता है तो राज्यपाल द्वारा उस विधेयक पर रोक लगाना अनिवार्य होता है।
- कोई भी विधेयक भारत के संविधान के प्रावधानों, राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों अथवा देश के व्यापक हित या गंभीर राष्ट्रीय महत्त्व के विरुद्ध है, या संविधान के अनुच्छेद 31 A, के तहत संपत्ति के अनिवार्य अधिग्रहण से संबंधित है तो यह तय करना राज्यपाल के विवेकाधीन होता है।
भारत में राज्यपाल के पद को समाप्त कर देने के पक्ष और विपक्ष में प्रतुत किए जाने वाला तर्क :
- भारत में राज्यपालों द्वारा अनुचित और असंवैधानिक आचरण किए जाने पर प्रायः यह कहा जाता है कि इस भारत में राज्यपाल के पद को पूरी तरह से समाप्त कर दिया जाए। हालाँकि यह तर्क अविवेकपूर्ण और अनावश्यक दोनों है।
- अविवेकपूर्ण कहे जाने के पीछे यह तर्क होता है कि क्योंकि वेस्टमिंस्टर संसदीय लोकतंत्र (Westminster parliamentary democracy) में राज्य के प्रमुख और सरकार के प्रमुख दोनों की उपस्थिति की आवश्यकता होती है और राज्यपाल का पद समाप्त करना उस पूरी संसदीय प्रणाली को समाप्त करने के समान होगा।
- अनावश्यक कहे जाने के पीछे यह तर्क निहित होता है कि क्योंकि न्यायिक हस्तक्षेप या संवैधानिक सुधार जैसे व्यवहार्य विकल्प पहले से मौजूद हैं। अतः भारत में राज्यपाल के पद को समाप्त कर देना अनावश्यक है।
भारत में राज्यपाल के पद से संबंधित संविधान सभा के सदस्यों के विचार :
- भारत में संविधान सभा के कुछ सदस्य, जैसे दक्षिणायनी वेलायुधन, विश्वनाथ दास और एच.वी. कामथ राज्यपालों से संबंधित प्रावधानों के प्रखर आलोचक थे। उनका तर्क था कि संविधान का मसौदा चूंकि भारत सरकार अधिनियम 1935 की प्रतिकृति है जहाँ केंद्र को बहुत अधिक शक्तियाँ दी गई हैं और राज्यों की स्वायत्तता को कम कर दिया गया है। अतः उन्हें यह भी भय था कि राज्यपाल केंद्र के एजेंट के रूप में कार्य करेंगे और राज्य सरकारों के कार्य में हस्तक्षेप करेंगे।
- संविधान के मुख्य वास्तुकार डॉक्टर बी.आर. अंबेडकर ने राज्यपालों से संबंधित मौजूदा प्रावधानों का बचाव किया था। उनका तर्क था कि भारत सरकार अधिनियम 1935 में बदलाव करने के लिए बहुत कम समय था और राज्यपालों को केवल राज्य सरकारों के साथ मिलकर कार्य करना है, न कि उन पर शासन करना या हावी होना है। राज्यपाल द्वारा केंद्र के अनुसार कार्य करने की आशंक जिसकी संभावना संविधान सभा के कई सदस्यों द्वारा उजागर की गई, को डा. अंबेडकरख़ारिज कर दिया था। उन्होंने इस बारे में भी कुछ नहीं कहा कि राज्यपाल संबंधी प्रावधानों में कोई सुधार क्यों नहीं किया गया, जबकि भारत सरकार अधिनियम 1935 के कई प्रावधानों को आवश्यकतानुसार सुधार के साथ संविधान में शामिल किया गया था।
वर्तमान समय में राज्यपाल से संबंधित किए जाने वाले महत्वपूर्ण सुधार :
न्यायिक हस्तक्षेप :
- सर्वोच्च न्यायालय राज्यपालों के आचरण की निगरानी करना जारी रख सकता है और यह सुनिश्चित करने के लिए निर्देश या टिप्पणियाँ जारी कर सकता है कि वे संविधान एवं कानून के अनुसार कार्य करें। इससे राज्यपालों की मनमानी या पक्षपातपूर्ण कार्रवाइयों को रोकने और भारतीय राजनीति के संघीय सिद्धांत या संघीय स्वरुप को बनाए रखने में मदद मिल सकती है।
वर्तमान नियुक्ति और निष्कासन प्रक्रिया में सुधार करना :
- भारत में राज्यपालों की नियुक्ति और निष्कासन की प्रक्रिया को बदलने के लिए भारत के मौजूदा संविधान में भी संशोधन किया जा सकता है, जैसा ‘हेड्स हेल्ड हाई’ के लेखकों ने सुझाव दिया है। इसमें एक अधिक पारदर्शी और परामर्शी तंत्र शामिल हो सकता है, जैसे कि कॉलेजियम या संसदीय समिति, जो योग्यता और उपयुक्तता के आधार पर उम्मीदवारों का चयन कर सकती है।राज्य विधानमंडल के प्रस्ताव या न्यायिक जाँच की आवश्यकता के साथ राज्यपालों के निष्कासन को और भी कठिन बनाया जा सकता है।
राज्यपाल को राष्ट्रपति के समान दर्जा प्रदान कर राज्य के प्रति जवाबदेह बनाना :
- भारत में राज्यपाल को राज्य विधानमंडल के प्रति उसी तरह जवाबदेह बनाया जा सकता है जैसे राष्ट्रपति केंद्रीय संसद के प्रति जवाबदेह होता है। राज्यपाल के लिए भी निर्वाचन से नियुक्ति और महाभियोग से निष्कासन जैसी व्यवस्था किया जा सकता हैं।
राज्यपाल को एक निर्वाचित प्रतिनिधि बनाना :
- राज्यपाल को केंद्र सरकार द्वारा नामित व्यक्ति के बजाय राज्य का एक निर्वाचित प्रतिनिधि बनाया जा सकता है। इससे इस पद की जवाबदेही एवं वैधता बढ़ सकती है और केंद्र द्वारा हस्तक्षेप या प्रभाव की गुंजाइश कम हो सकती है। राज्यपाल का चुनाव राज्य विधानमंडल या राज्य के लोगों द्वारा किया जा सकता है, जैसा कि भारत में राष्ट्रपति के चुनाव के संदर्भ में होता है।
महाभियोग लगाकर पद से निष्काषित करना :
- भारत में राज्यपाल को संविधान के उल्लंघन या कदाचार के आधार पर राज्य विधानमंडल द्वारा महाभियोग चलाकर उसके पद से हटाया जा सकता है। जिससे यह राज्यपाल की शक्ति और अधिकार पर नियंत्रण एवं संतुलन प्रदान कर सकता है और राज्यपाल के पद को किसी भी दुरुपयोग करने से रोक सकता है। राज्यपाल पर महाभियोग की प्रक्रिया को राष्ट्रपति पर महाभियोग लगाने की प्रक्रिया के समान ही बनाया जा सकता है, जहाँ कुल सदस्यता के बहुमत और राज्य विधानमंडल के दोनों सदनों में उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है।
भारत में सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न समितियों द्वारा राज्यपाल से संबंधित सुझाए गए संवैधानिक सुधार :
भारत में सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न समितियों द्वारा राज्यपाल के पद से संबंधित समय – समय पर कुछ संवैधानिक सुधार सुझाये गए हैं। जो निम्नलिखित है –
सरकारिया आयोग (1988) की सिफारिशें :
- राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री से परामर्श के बाद की जानी चाहिए।
- राज्यपाल को सार्वजनिक जीवन के किसी क्षेत्र में प्रतिष्ठित व्यक्ति होना चाहिये और उस राज्य से संबंधित नहीं होना चाहिये जहाँ वह नियुक्त किया जा रहा है।
- दुर्लभ एवं बाध्यकारी परिस्थितियों को छोड़कर राज्यपाल को उसका कार्यकाल पूरा होने से पहले नहीं हटाया जाना चाहिए।
- राज्यपाल को केंद्र और राज्य के बीच एक सेतु के रूप में कार्य करना चाहिए न कि केंद्र के एजेंट के रूप में कार्य करना चाहिए।
- राज्यपाल को अपनी विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग संयमित और विवेकपूर्ण तरीके से करना चाहिए और उनका उपयोग लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कमज़ोर करने के लिए नहीं बल्कि उसका उपयोग भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूत करने के लिए करना चाहिए।
वेंकटचलैया आयोग (2002) के सुझाव :
- भारत में राज्यपालों की नियुक्ति की प्रक्रिया को एक समिति को सौंपी जानी चाहिए, जिसमें प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, लोकसभा अध्यक्ष और संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री शामिल हों।
- भारत में राज्यपाल को पाँच वर्ष का कार्यकाल पूरा करने की अनुमति दी जानी चाहिए , जब तक कि दुर्व्यवहार या अक्षमता के आधार पर वे इस्तीफा नहीं दे देते या राष्ट्रपति द्वारा हटा नहीं दिए जाते हैं।
- भारत में केंद्र सरकार को राज्यपाल को हटाने से संबंधित किसी भी प्रकार की कार्रवाई करने से पहले संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री से सलाह अवश्य लेनी चाहिए।
- राज्यपाल को भी राज्य के दैनिक प्रशासन में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। उन्हें राज्य सरकार के मित्र, दार्शनिक एवं मार्गदर्शक के समान कार्य करना चाहिए और अपनी विवेकाधीन शक्तियों का संयमपूर्वक उपयोग करना चाहिए।
पुंछी आयोग (2010) का सुझाव :
- भारत में राज्यपाल से संबंधित पुंछी आयोग ने संविधान से ‘राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत’ (during the pleasure of the President) वाक्यांश को हटाने की सिफारिश की, जिसके अनुसार राज्यपाल को केंद्र सरकार की इच्छा पर हटाया जा सकता है।
- पुंछी आयोग ने यह सुझाव भी दिया कि राज्यपाल को केवल राज्य विधानमंडल के एक प्रस्ताव द्वारा उसके पद से ही हटाया जाना चाहिए , जो भारत में किसी भी राज्य के लिए अधिक स्थिरता और स्वायत्तता सुनिश्चित करेगा।
बी.पी. सिंघल बनाम भारत संघ (2010)में भारत के सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय :
- बी.पी. सिंघल बनाम भारत संघ (2010) में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यपाल के पद के संबंध में निर्णय में कहा कि राष्ट्रपति किसी भी समय और बिना कोई कारण बताए राज्यपाल को हटा सकता है। भारत में यह प्रक्रिया इसलिए हो सकता है क्योंकि राज्यपाल भारत के संविधान के अनुच्छेद 156(1) के तहत ‘राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत’ अपने पद पर बना रहता है। हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि राज्यपाल के पद से किसी भी व्यक्ति का निष्कासन मनमाने तरीके या किसी भी अनुचित कारणों के आधार पर नहीं होना चाहिए, बल्कि भारत में राज्यपाल को पद से हटाने के लिए संविधान सम्मत तरीके अपनाए जाना चाहिए।
निष्कर्ष / समाधान की राह :
- भारत में राज्यपालों की भूमिका पर जारी चर्चा अत्यंत सूक्ष्म सुधारों की आवश्यकता को रेखांकित करती है, जबकि इस पद का पूर्ण उन्मूलन अविवेकपूर्ण समझा जाता है। अतः भारत में राज्यपालों की पारदर्शी नियुक्ति, उनकी पदेन जवाबदेही में वृद्धि और सीमित विवेकाधीन शक्तियों केउपयोग संयमपूर्वक करना होगा।
- भारत में लोकतांत्रिक सिद्धांतों या संवैधानिक मूल्यों को को कमज़ोर किए बिना भी राज्यपाल के पद को प्रभावी रूप से क्रियान्वित करने को सुनिश्चित करने के लिए भारत में राज्य और केंद्र के हितों के बीच संतुलन बनाना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि किसी भी राज्य में राज्यपाल केवल रबड़ स्टाम्प या केंद्र सरकार का एजेंट भर नहीं होता है, बल्कि राजपाल अनेकों बार अपनी सूझ- बूझ से और अपनी विवेकाधीन शक्तियों का उपयोग कर राज्य सरकार और संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री के साथ मिलकर उस राज्य में बेहतर रूप से प्रशासनिक करवाई करते है और एक बेहतर, विवेकी प्रशासनिक तंत्र विकसित करते हैं और राज्य को उन्नत राज्य बनाने की दिशा में कार्य भी करते हैं।
- अतः कोई भी पद समय सापेक्ष होता है। अगर बदलते समय के साथ उस पद से संबंधित शक्तियों को बेहतर लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले राज्य में परिणत करने की कोई भी कोशिश होती है तो यह भारत के लोकतंत्र के साथ – ही – साथ संवैधानिक मूल्यों से ओत – प्रोत शासन व्यवस्था का सूचक है। जिससे राज्य में एक स्थिर , लोकतांत्रिक , समानतामूलक राज्य व्यवस्था की रीढ़ ही मजबूत होगी और भारत में राजपाल का पद भी अपनी गरिमा, संवैधानिक मूल्यों से लैश और अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखने में भी सक्षम होगी। राज्यपाल संबंधित राज्य के मुख्यमत्री और मंत्रिमंडल के साथ तालमेल बिठाकर उस राज्य को एक पारदर्शी और न्यायपूर्ण शासन व्यवस्था देने में सक्षम हो सकेगा। क्योंकि जब भी कोई सरकार अविवेकी और तानाशाही की ओर उन्मुख होती है तो राज्यपाल के पद पर विराजमान न्याय का चाबुक उस निर्वाचित सरकार को न्यायिक चरित्र से युक्त एवं विवेकी बनाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
स्त्रोत – द हिन्दू एवं पीआईबी।
Download plutus ias current affairs Hindi med 28th Oct 2024
प्रारंभिक परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न :
Q.1. भारत में राज्यपाल के संबंध में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए।
- पुंछी आयोग के अनुसार राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री से परामर्श के बाद की जानी चाहिए।
- सरकारिया आयोग के अनुसार भारत में राज्यपालों की नियुक्ति की प्रक्रिया को एक समिति को सौंपी जानी चाहिए, जिसमें प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, लोकसभा अध्यक्ष और संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री शामिल हों।
- भारत में राज्यपाल की नियुक्ति केंद्र सरकार की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
- भारत में राज्यपाल धन विधेयक के साथ – ही – साथ किसी भी विधेयक को या उस विधेयक के कुछ उपबंधों पर पुनर्विचार के अनुरोध वाले संदेश के साथ राज्य विधानमंडल को वापस भेज सकता है।
उपरोक्त कथन/ कथनों में कौन सा कथन सही है ?
A. केवल 1 और 3
B. केवल 2 और 4
C. केवल 2
D. केवल 3
उत्तर – D
मुख्य परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न :
Q.1 भारत में राज्यपाल की नियुक्ति की प्रक्रिया को रेखांकित करते हुए, विभिन्न आयोगों के सुझावों के आलोक में राज्यपाल के पद से जुड़ी चुनौतियों और उन चुनौतियों के समाधान की विस्तारपूर्वक चर्चा कीजिए। ( शब्द सीमा – 250 अंक – 15 )
Qualified Preliminary and Main Examination ( Written ) and Shortlisted for Personality Test (INTERVIEW) three times Of UPSC CIVIL SERVICES EXAMINATION in the year of 2017, 2018 and 2020. Shortlisted for Personality Test (INTERVIEW) of 64th and 67th BPSC CIVIL SERVICES.
M. A M. Phil and Ph. D From (SLL & CS) JAWAHARLAL NEHRU UNIVERSITY, NEW DELHI.
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